अल्लाह के आखिरी और अंतिम दूत पैगंबर मुहम्मद (ﷺ) दुनिया भर के लाखों लोगों के दिलों में एक महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं। उनके जीवन और शिक्षाओं ने मानवता पर अमिट छाप छोड़ते हुए इतिहास की दिशा को आकार दिया है। सम्पूर्ण मानव जाती की इतिहास में उनके इतना प्रभाव शाली व्यक्ति ना कभी हुआ और ना कभी होगा ।
मोहम्मद पैगंबर (ﷺ) का इतिहास
इस लेख का उद्देश्य पैगंबर मुहम्मद (ﷺ) का इतिहास और जीवन के मुख्य घटनाओ और उनके जीवन में उन्होंने दी हुई कल्याण कारी शिक्षाओं के बारे में साफ सुथरी जानकारी प्रदान करना है । हजारों वर्ष पुरानी घटनाओ का उल्लेख जस-के-तस करना किसीके भी लिए मुमकिन नहीं , इसलिए अगर कोई कमी-कोताही रह जाए तो अल्लाह हमे माफ करे , आमीन ।
पैगंबर मुहम्मद (ﷺ) का जीवन
पैगंबर मुहम्मद (ﷺ) का जन्म और बचपन
पैगंबर मुहम्मद (ﷺ) का जन्म वर्ष 570 ईस्वी में वर्तमान सऊदी अरब के मक्का शहर में हुआ था। मक्का उस वक्त अज्ञानता, मूर्ति पूजा और सामाजिक अन्याय से ग्रस्त था। उनका जन्म मक्का की एक प्रमुख कबीला कुरैश जनजाति में हुआ था। मुहम्मद (ﷺ) के पिता अब्दुल्ला का उनके जन्म से कुछ महीने पहले ही निधन हो गया था और उनकी माँ अमीना की मृत्यु तब हो गई थी जब वह केवल छह वर्ष के थे।
इसतरह उन्होंने बिना माँ-बाप के एक यतीम बच्चे का बचपन जिया । एक अनाथ के रूप में, उनका पालन-पोषण उनके दादा अब्दुल-मुत्तलिब और बाद में उनके चाचा अबू तालिब ने किया। पैगंबर मुहम्मद (ﷺ) अपने चाचा के कामों में हाथ बटाते थे । उनके चाचा उनसे बहुत प्यार करते थे और मरते दम तक उन्होंने अपने भतीजे की देखभाल की ।
अपने बचपन के दौरान, मुहम्मद (ﷺ) अपनी ईमानदारी, दयालुता और चिंतनशील स्वभाव के लिए जाने जाते थे। वह अक्सर मक्का के आसपास के पहाड़ों में एकांत तलाशते थे । इस एकांत वास में वह अपने आसपास की दुनिया और उसे बनाने वाले ताकत पर गौर करते थे । मक्का के तीर्थ यात्रा स्थल होने की वजह से मुहम्मद (ﷺ) विभिन्न संस्कृतियों और धर्मों से भी अवगत थे ।
मुहम्मद (ﷺ) का प्रारंभिक जीवन जिम्मेदारी और भरोसेमंदता की मिसाल था। बचपन के कई घटनाओ में उन्होंने अपनी बुद्धिमत्ता का प्रदर्शन किया । उनकी सत्यनिष्ठा और विश्वसनीयता के कारण लोगोंने उन्हे “अल-अमीन” की उपाधि दी और वह इसी नाम से मशहूर थे । “अल-अमीन” का अर्थ है “भरोसेमंद”।
पैगंबर मुहम्मद (ﷺ) पढ़ना-लिखना नहीं जानते थे । जी हाँ, यह अविश्वसनीय है की दुनिया पर जबरदस्त प्रभाव रखने वाले और जीवन ज्ञान के स्त्रोत होने के बावजूद उन्हे पढ़ना और लिखना नहीं आता था । यह एक चमत्कार और अल्लाह की और से एक निशानी थी ताकि कोई यह नहीं कह सके की पैगंबर मुहम्मद (ﷺ) ने कुरान को अपने हाथों से लिखा ।
पैगंबर मुहम्मद (ﷺ) का प्रौढ़ जीवन और शादी
बड़े होने पर पैगंबर मुहम्मद (ﷺ) अपने चाचा के लिए बकरियाँ चराते थे । चरवाहे के अलावा वह मक्का के बाहर व्यापारिक यात्राओं में उनके साथ यात्रा करते थे। वह लोगों और व्यापारीयों के सामान और अमानत को बड़े ईमानदारी के साथ अपने स्थान पर पहुंचाते थे । लोग उनके इस ईमानदारी से बहुत प्रभावित थे ।
उनके इसी ईमानदारी से प्रभावित होकर मक्का की सबसे अमिर औरतों मे से एक हजरत खतीजा (र.अ) ने उनसे निकाह करने का पैगाम भेजा । पैगंबर मुहम्मद (ﷺ) ने इस बारे में अपने चाचा से सलाह ली । चाचा की सलाह पर उन्होंने 25 साल की उम्र में हजरत खतीजा (र.अ) से निकाह किया ।
आगे चल कर उन्हे हजरत खतीजा (र.अ) से तकरीबन छह संतान हुई । पैगंबर मुहम्मद (ﷺ) के बच्चों के नाम कासिम, जैनब, रुकय्या, उम्मे-कुलसुम और अब्दुल्लाह (तय्यब तथा ताहिर) थे। लेकिन उनके लड़के कासिम और अब्दुल्लाह की जल्द ही मृत्य हो गई । उनकी बेटी फातेमा (र.अ) ने उनके वंशावली को आगे बढ़ाया ।
इस्लामी मान्यताओ की अनुसार अल्लाह ने पैगंबर मुहम्मद (ﷺ) का कोई बेटा जीवित नहीं रखा। यह इसलिए था क्यों की पैगंबर मुहम्मद (ﷺ) आखरी पैगंबर थे और उनके बाद किसी पैगंबर के दुनिया में आने का सिलसिला खत्म करना था जो उनके लड़कों के वंश से पैदा होता । इसलिए अब कोई पैगंबर होने का दावा नहीं कर सकता ।
पैगंबर मुहम्मद (ﷺ) ने अपने जिंदगी में कुल 11 विवाह किए । मक्का के जिंदगी में 1 और मदीना में रहते हुए अन्य 10 । उनके के विवाहों ने विभिन्न उद्देश्यों को पूरा किया, जिसमें विभिन्न जनजातियों के साथ गठबंधन को मजबूत करना, मुस्लिम समुदाय के बीच एकता को बढ़ावा देना और अपने अनुयायियों के लिए एक उदाहरण स्थापित करना शामिल था। इसके अतिरिक्त, उनके विवाहों ने उन्हें विधवाओं की देखभाल करने और उन्हें सहायता और सुरक्षा प्रदान करने की अनुमति दी।
मुहम्मद (ﷺ) पैगंबर बने
एक दिन हमेशा की तरह मुहम्मद (ﷺ) मक्का में जबले नूर नाम के पहाड़ी पर स्थित हीरा गुफा में ध्यान कर रहे थे । अचानक से उनके सामने देवदूत जिब्रइल (अ.स.) प्रकट हुए और बात करने लगे । फ़रिश्ते जिब्रइल (अ.स.) ने मुहम्मद (ﷺ) से कहा “पढ़ो…”, पैगंबर ने कहा की “पर, में पढ़ नहीं सकता। ” ऐसा 2 बार हुआ ।
इसपर तीसरी बार जिब्रइल (अ.स.) ने उनसे कहा :
- पढ़ों, अपने पालनहार के नाम से, जिसने पैदा किया।
- पैदा किया, जिस ने मनुष्य को रक्त को लोथड़े से ।
- पढ़ों, और तेरा पालनहार बड़ा दया वाला है।
- जिस ने लेखनी के द्वारा ज्ञान सिखाया।
- इन्सान को उसका ज्ञान दिया जिस को वह नहीं जानता था।
यह कुरान की पहली पाँच आयते है जो मुहम्मद (ﷺ) पर अवतरित हुई। यह आयते कुरान में सूरह अल-अलक (96:1-5) में दर्ज हुई है । और इस तरह आगे 23 सालों तक जिब्रइल (अ.स.) आते और अल्लाह का संदेश उन्हे इस तरह सुनाते की वह मुहम्मद (ﷺ) को याद हो जाता । फिर उसे वह उसे अच्छी तरह लोगों को सुनाते जैसे एक पैगंबर की जिम्मेदारी होती है । इन कुरान की आयतों को मुहम्मद (ﷺ) अपने साथियों को याद करवा देते और कुछ से लिखवा लेते ।
जब फरिश्ता आकर कुरान सुनाता तो मुहम्मद (ﷺ) खामोश हो जाते और उनके भाव बदल जाते । जिसे देख कर उनके साथियों को यह एहसास हो जाता की फरिश्ता आया है और अल्लाह के पैगंबर पर कोई सूरह तथा आयात नाजिल (अवतरित) हो रही है ।
कई बार जब भी कोई समस्या तथा मामला पेश आता जिसमे मुसलमानों को अल्लाह के मार्गदर्शन की जरूरत पड़ती तो अल्लाह का हुक्म आयात के रूप में नाजिल हो जाता । ऐसा कभी तुरंत होता था तो कभी कुछ वक्त के बाद । इन मामलों को शान ए नजूल (context) कहते है । आज के दौर में इसी शान एक नजूल को ध्यान मे रख कर कुरान के आयतों का अर्थ विशेष मामलों में लगाया जाता है ।
40 साल की उम्र में, मुहम्मद (ﷺ) को देवदूत जिब्रईल अलैहिस्सलाम के माध्यम से अल्लाह से पहला रहस्योद्घाटन प्राप्त हुआ। इसने उनके भविष्यवक्ता और मानवता को इस्लाम का संदेश देने के मिशन की शुरुआत की। कुरान में संकलित रहस्योद्घाटन दुनिया भर के मुसलमानों के लिए एक मार्गदर्शक के रूप में काम करते हैं।
मुहम्मद (ﷺ) पैगंबर द्वारा इस्लाम की स्थापना
इस्लाम के संदेश में पैगंबर मुहम्मद (ﷺ) एक ईश्वर, अल्लाह की पूजा पर जोर देते हुए एकेश्वरवाद का संदेश दिया। उन्होंने मूर्ति पूजा को त्यागने और धार्मिकता का अनुसरण करने का आह्वान किया। इस्लाम, जिसका अर्थ है “अल्लाह की इच्छा के प्रति समर्पण”, आस्था, पूजा, नैतिकता और सामाजिक न्याय के पहलुओं को कवर करते हुए जीवन का एक व्यापक तरीका शामिल करता है।
पैगंबर (ﷺ) ने एक न्यायपूर्ण समाज की स्थापना के महत्व पर जोर दिया, जहां सभी व्यक्तियों के अधिकार, उनकी पृष्ठभूमि की परवाह किए बिना, सुरक्षित हो । उन्होंने नस्लवाद, जनजातीयवाद और आर्थिक असमानताओं जैसी सामाजिक बुराइयों के उन्मूलन की वकालत की। उनकी शिक्षाएँ समाज के सभी सदस्यों के लिए समानता, करुणा और सम्मान को बढ़ावा देती हैं।
इस्लाम की स्थापना कोई अचानक से घटी घटना नहीं है । इस्लाम की स्थापना ने मुहम्मद (ﷺ) पैगंबर का पूरा जीवन काल ले लिया। और उनके आखरी हज के मौके पर कुरान के आयात सूरह अल-माईदा:3 में मौजूद हुक्म के साथ इस्लाम का मुकम्मल रूप स्थापित हो गया ।
इसरा और मेराज फिर अल्लाह से मुलाकात
इस्लामीक मान्यताओं में, इसरा और मिराज पैगंबर मुहम्मद (ﷺ) के जीवन की दो चमत्कारी घटनाए है जिसमे उन्होंने बहुत कम वक्त में लंबी यात्रा और अल्लाह से मुलाकात की।
इसरा : जिसका अर्थ है “रात की यात्रा”, वह घटना है जहां पैगंबर मुहम्मद (ﷺ) को फ़रिश्ते जिब्रइल (अ.स.) द्वारा मक्का में काबा से यरूशलेम में मौजूद अल-अक्सा मस्जिद तक ले जाया गया था। यह यात्रा एक ही रात में हुई और देवदूत जिब्रइल (अ.स.) ने इसे सुगम बनाया। इसरा के दौरान, पैगंबर मुहम्मद (ﷺ) ने अल-अक्सा मस्जिद में प्रार्थना में पैगंबरों (अ.स.) की एक बड़ी जमात (जमावड़े) का नमाज में नेतृत्व (इमामत) किया। इसी लिए उन्हे इमाम-उल-अंबिया और तमाम नबियों-रसूलों के सरदार कहा जाता है ।
मेराज : जिसका अर्थ है “आरोहण” होता है । इस घटना में, पैगंबर मुहम्मद (ﷺ) स्वर्ग और नरक को देखा, विभिन्न आसमानों के स्तरों या क्षेत्रों का दौरा किया, और रास्ते में विभिन्न पैगंबरों के मृत्य पश्चात रूप से मुलाकात की। वह अंततः उच्चतम स्तर पर पहुंच गए, जिसके आगे किसी के लिए भी जाना संभव नहीं,किसी फ़रिश्ते का भी नहीं। उस जगह को सिदरत अल-मुंतहा के नाम से जाना जाता है। उस से आगे अल्लाह का अर्श(तख्त,आसन) है जहां उनका अल्लाह (ईश्वर) से सीधा साक्षात्कार हुआ।
मेराज के अंत में अल्लाह से मुलाकात और बातचीत का बड़ा दिलचस्प वाकिया है । यही से पर मुसलमानों के लिए दैनिक प्रार्थनाओं (नमाज) के संबंध में निर्देश तोहफे के तौर पर प्राप्त हुए। इसी के बाद मुसलमान 5 वक्त की नमाजे पढ़ने लगे । यानि नमाज अल्लाह से प्रार्थना मांगने के लिए एक जरिया है ।
मोहम्मद पैगंबर (ﷺ) की मक्का मे मुश्किल जिंदगी
मक्का में पैगंबर मुहम्मद (ﷺ) का जीवन अत्यधिक कठिनाइयों और यातनाओं से भरा था। इस्लाम का प्रचार करने की वजह से उन्हें उस समय मक्का की प्रमुख जनजाति कुरैश के लगातार विरोध का सामना करना पड़ा। उन्हे मौखिक दुर्व्यवहार, शारीरिक हमले और सामाजिक बहिष्कार का सामना करना पड़ा। उनका उपहास किया गया, अपमान किया गया और विभिन्न प्रकार से उत्पीड़न किया गया।
कुरैश नेताओं ने, अपने अविश्वास और अपनी शक्ति खोने के डर से प्रेरित होकर, मुहम्मद (ﷺ) के संदेश को कमजोर करने और उन्हें बदनाम करने की कोशिश की। उन्होंने झूठी अफवाहें फैलाईं, उनकी शिक्षाओं का मज़ाक उड़ाया और यहां तक कि शारीरिक हिंसा का भी सहारा लिया। ऐसी कठिनाइयों को सहने के बावजूद, पैगंबर अपने मिशन में दृढ़ रहे, अटूट धैर्य, लचीलापन और क्षमा का प्रदर्शन किया। उनके अटूट विश्वास और दृढ़ संकल्प ने उनके अनुयायियों को प्रेरित किया और इस्लाम के प्रसार की नींव रखी।
इस दौरान कई मुसलमानों को तड़पा-तड़पा कर मार डाला गया । मुहम्मद (ﷺ) और उनके अनुयाईयो को 3 वर्ष तक कठोर बहिष्कार में डाला गया । कुछ को अपने घर-बार छोड़ कर निर्वासन में जाना पड़ा । यह मुसीबते कम हुई नहीं के उनके चाचा और फिर पत्नी खटीजा (र.अ) का भी देहांत हो गया । लेकिन वह अल्लाह द्वारा दिए गए जिम्मेदारी और मिशन के प्रति डटे रहे ।
हिजरत : मदीना की ओर प्रवास
चाचा अबू-तालिब के देहांत के बाद मक्का में विरोधियों का हौसला इतना बढ़ गया की उन्होंने मुहम्मद (ﷺ) की हत्या करने की कोशिश की । अंत में अल्लाह ने मुहम्मद (ﷺ) को मक्का छोड़ने और यातरीब(मदीना का पुराना नाम) जाने का आदेश दिया, जिसे बाद में मदीना नाम दिया गया। उनका मदीना आने का बहुत ज्यादा स्वागत किया गया, उन्होंने एक गृह युद्ध समाप्त किया और मुसलमानों का एक मजबूत-आस्तिक समुदाय बनाया जो शांति और शांति से रहते थे, लेकिन, वापसी की अभी भी आवश्यकता थी।
मक्का में उत्पीड़न का सामना करते हुए, पैगंबर मुहम्मद (ﷺ) और उनके अनुयायी 622 ईस्वी में मदीना शहर में चले गए। यह घटना, जिसे हिजरा के नाम से जाना जाता है, इस्लामी इतिहास में एक महत्वपूर्ण मोड़ साबित हुई। मदीना में, पैगंबर (ﷺ) ने न्याय, परामर्श और सहयोग के सिद्धांतों के आधार पर पहला इस्लामी राज्य स्थापित किया।
उन्होंने मदीना में एक बहुलवादी समाज की नींव रखी, जिसमें सभी नागरिकों के अधिकारों और सुरक्षा को सुनिश्चित किया गया, चाहे उनकी धार्मिक आस्था कुछ भी हो। इसने शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व और धार्मिक स्वतंत्रता को बढ़ावा देने के लिए पैगंबर (ﷺ) की प्रतिबद्धता का उदाहरण दिया। उनके मदीना जाने से मदीना के लोगों में मौजूद आपसी लड़ाईया खत्म हो गई।
मदीना जाकर उन्होंने एक मस्जिद को बनाया , यह मस्जिद-ए-नबवि (ﷺ) के नाम से जानी जाती है । आज के वक्त में यह और भी विशाल और भव्य बन गई है । एक साथ लाखों लोग इसमें नमाज अदा कर सकते है । इसी मस्जिद से इस्लाम संबंधित कार्यों को वह निर्देशित करते थे ।
बदर और उहद की लड़ाई
बद्र की लड़ाई और उहुद की लड़ाई मदीना में रहने के दौरान पैगंबर (ﷺ) के जीवन में महत्वपूर्ण सैन्य मुठभेड़ थीं।
बद्र की लड़ाई वर्ष 624 ई. में हुई थी। पैगंबर मुहम्मद (ﷺ) और उनके साथियों, जिनकी संख्या लगभग 313 थी, ने कुरैश की एक सुसज्जित सेना का सामना किया, जिसमें लगभग 1,000 सैनिक शामिल थे। संख्या में कम होने और सीमित संसाधनों के बावजूद मुसलमानों ने निर्णायक जीत हासिल की। यह लड़ाई प्रारंभिक मुस्लिम समुदाय के लिए एक महत्वपूर्ण मोड़ थी, जिससे उनका मनोबल बढ़ा और एक ताकत के रूप में उनकी विश्वसनीयता स्थापित हुई।
उहुद की लड़ाई वर्ष 625 ई. में हुई थी। कुरैश ने बद्र में अपनी हार का बदला लेने की कोशिश की और लगभग 3,000 सैनिकों की एक सेना इकट्ठी की। लगभग 1,000 की संख्या में मुसलमानों ने शुरू में बढ़त हासिल कर ली, लेकिन एक रणनीतिक त्रुटि के कारण उन्हें असफलताओं का सामना करना पड़ा। इससे मुसलमानों की अस्थायी हार हुई, जिसके परिणामस्वरूप पैगंबर (ﷺ) के कुछ प्रमुख साथियों की हानि हुई। हालाँकि, मुसलमान फिर से संगठित हो गए और कुरैश सेनाओं को पीछे हटाने में कामयाब रहे।
हुदैबियाह की शांति संधि
हुदैबियाह की संधि, जिसे सुलह हुदैबियाह के नाम से भी जाना जाता है, पैगंबर मुहम्मद (ﷺ) और मक्का की कुरैश जनजाति के बीच हस्ताक्षरित एक शांति समझौता था। वे दस वर्षों के लिए लड़ाई बंद करने पर सहमत हुए और मुसलमानों को मक्का की तीर्थयात्रा करने की अनुमति दी। कुछ मुसलमान शर्तों से नाखुश थे, लेकिन मुहम्मद (ﷺ) ने इसे एक जीत के रूप में देखा।
इस संधि से मुसलमानों और कुरैश के बीच संबंधों में सुधार हुआ और इस्लाम को शांतिपूर्ण ढंग से फैलाने में मदद मिली। इसने पैगंबर के कूटनीतिक कौशल को दिखाया और ईश्वर की योजना में धैर्य और विश्वास के बारे में महत्वपूर्ण सबक सिखाया। हुदैबिया की संधि ने इस्लाम के विकास और क्षेत्र में शांति की स्थापना में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
मक्का पर अद्भुत जीत
मक्का अरब जनजातियों के लिए एक विशेष स्थान था, लेकिन कुरैश जनजाति द्वारा उनके साथ बुरा व्यवहार के चलते मुहम्मद (ﷺ) और उनके अनुयायियों को छोड़ना पड़ा। लेकिन मदीना में मुस्लिम समुदाय मजबूत हो गए, और पैगंबर मुहम्मद (ﷺ) ने विभिन्न जनजातियों के साथ गठबंधन बनाया। उसने मक्का पर दोबारा कब्ज़ा करने और काबा तक पहुंच हासिल करने की योजना बनाई, जो इस्लाम में सबसे महत्वपूर्ण स्थान है।
इस जीत को खास इसलिए बनाया गया क्योंकि यह बिना लड़े ही हासिल हुई। पैगंबर मुहम्मद (ﷺ) और उनकी सेना ने वर्ष 630 ई में शांतिपूर्वक मक्का में प्रवेश किया। बदला लेने के बजाय, उसने अपने दुश्मनों को माफ कर दिया और उन पर दया दिखायी। क्षमा के इस कार्य ने अरब जनजातियों को एक साथ लाया और उन्हें इस्लाम की शिक्षाओं के तहत एकजुट किया।
विजय के दौरान, काबा में और उसके आसपास पूजा की जाने वाली मूर्तियों को उन्ही लोगों द्वारा हटा दिया गया जो पहले उसे पूजते थे । पैगंबर मुहम्मद (ﷺ) काबा को साफ़ करना चाहते थे और इसे एक ईश्वर के पूजा स्थल के रूप में पुनर्स्थापित करना चाहते थे। और उन्होंने किया ।
मक्का पर विजय इस्लाम के लिए एक निर्णायक मोड़ थी। मक्का पर मुस्लिम नियंत्रण होने से, अधिक लोगों ने इस्लाम और उसकी शिक्षाओं को स्वीकार करना शुरू कर दिया। इस विजय ने क्षमा, न्याय और एकता की शक्ति दिखाई। इससे पूरे अरब प्रायद्वीप और उसके बाहर इस्लाम का संदेश फैलाने में मदद मिली।
पैगंबर मुहम्मद (ﷺ) का देहांत
पैगंबर मुहम्मद (ﷺ) की मृत्यु इस्लामी इतिहास की एक महत्वपूर्ण घटना है। अपनी मृत्यु से पहले, पैगंबर मुहम्मद (ﷺ) ने वर्ष 632 ई. में मुसलमानों की एक बड़ी सभा को अपना अंतिम उपदेश दिया था। इस उपदेश में, उन्होंने एकता, न्याय और कुरान और सुन्नत (पैगंबर की शिक्षाएं और प्रथाएं) के मार्गदर्शन के महत्व पर जोर दिया।
उपदेश के बाद पैगंबर बीमार पड़ गये और उनका स्वास्थ्य धीरे-धीरे गिरता गया। अपनी बीमारी के बावजूद वे अपने साथियों को मार्गदर्शन और सलाह देते रहे। पैगंबर मुहम्मद (ﷺ) ने अपने अंतिम दिन अपनी पत्नियों के इजाजत से पत्नी आयशा के घर में बिताए। उन्होंने गंभीर दर्द का अनुभव किया लेकिन धैर्य बनाए रखा और अपने नमाज, लोगों को समझने के कार्य और विश्वास पर दृढ़ रहे।
साल 632 ई. तथा 11 हिजरी, रबी अल-अव्वल के 12वें दिन बुखार जैसे बीमारी से मोहम्मद पैगंबर (ﷺ) की मौत हुई । मृत्यु के वक्त उनकी उम्र 63 वर्ष थी । उनकी मृत्यु से उनके अनुयायियों में भारी दुख हुआ, जिन्होंने अपने ज्यान से ज्यादा प्रिय नेता के खोने पर शोक व्यक्त किया।
पैगम्बर मुहम्मद (ﷺ) की मृत्यु इस्लामी इतिहास की एक महत्वपूर्ण घटना है। मुसलमान उनके जीवन, शिक्षाओं और इस्लाम के विकास और प्रसार पर उनके गहरे प्रभाव को याद करते हैं और उनका सम्मान करते हैं। उनकी विरासत कुरान, सुन्नत और दुनिया भर के मुसलमानों द्वारा उनकी शिक्षाओं के निरंतर अभ्यास के माध्यम से जीवित है।
मुहम्मद (ﷺ) की शिक्षाए और विरासत
पैगंबर मुहम्मद (ﷺ) न केवल एक आध्यात्मिक मार्गदर्शक थे बल्कि एक कुशल नेता और राजनेता भी थे। उन्होंने लोगों के साथ बातचीत में विनम्रता, दयालुता और दया का प्रदर्शन करते हुए उदाहरण पेश किया। उनकी नेतृत्व शैली ने समुदाय के सभी सदस्यों की भागीदारी सुनिश्चित करते हुए परामर्श और आम सहमति बनाने पर जोर दिया।
पैगंबर (ﷺ) ने न्याय की एक प्रणाली स्थापित की, जहां विवादों को निष्पक्ष और निष्पक्ष रूप से हल किया जाता था। उन्होंने शिक्षा को बढ़ावा दिया और इसकी परिवर्तनकारी शक्ति को पहचानते हुए ज्ञान की खोज को प्रोत्साहित किया। नैतिकता, नैतिकता और व्यक्तिगत आचरण पर उनकी शिक्षाएँ व्यक्तियों को जीवन के सभी पहलुओं में उत्कृष्टता के लिए प्रयास करने के लिए प्रेरित करती रहती हैं।
पैगंबर मुहम्मद (ﷺ) की विरासत उनके जीवनकाल से कहीं आगे तक फैली हुई है। उनकी शिक्षाएँ और उदाहरण मुसलमानों को उनके व्यक्तिगत और सामुदायिक जीवन में मार्गदर्शन करते रहते हैं। उन्होंने न्याय, करुणा और सामाजिक जिम्मेदारी के जिन सिद्धांतों की वकालत की, वे आधुनिक दुनिया में भी प्रासंगिक और लागू हैं।
पैगंबर (ﷺ) की शिक्षाओं ने कानून, नैतिकता, साहित्य और वास्तुकला सहित विभिन्न क्षेत्रों को प्रभावित किया है। ज्ञान की खोज पर उनके जोर ने इस्लामी स्वर्ण युग की नींव रखी, जहां विद्वानों ने विभिन्न विषयों में महत्वपूर्ण प्रगति की।
मोहम्मद पैगंबर (ﷺ) के उपदेशों का संग्रह
मोहम्मद पैगंबर (ﷺ) के उपदेशों का संग्रह अल-बुखारी , सहीह मुस्लिम जैसे हदीस के किताबों में है ।
पैगंबर मुहम्मद (ﷺ) के उपदेशों और शिक्षाओं का संग्रह कुरान की तरह एक ही पुस्तक में संकलित नहीं है, जिसे इस्लाम का केंद्रीय धार्मिक पाठ माना जाता है। हालाँकि, ऐसी कई किताबें हैं जो उनकी की बातों और शिक्षाओं को इकट्ठा करती हैं और प्रसारित करती हैं, जिन्हें हदीस के नाम से जाना जाता है।
हदीसों के सबसे प्रसिद्ध और आधिकारिक संग्रह साहिह अल-बुखारी और साहिह मुस्लिम हैं। इन संग्रहों में पैगंबर मुहम्मद (ﷺ) से संबंधित हजारों आख्यान शामिल हैं, जिनमें उनके उपदेश, कथन और कार्य शामिल हैं।